dharmvyaadh meaning in hindi

धर्मव्याध

  • स्रोत - संस्कृत

धर्मव्याध के हिंदी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • मिथिलापुर निवासी एक प्रसिद्ध व्याध जिसने कौशिक नामक एक तपस्वी वेदाध्यायी ब्राह्मण को धर्म का तत्व समझाया था

    विशेष
    . महाभारत (वन पर्व) में इसकी कथा इस प्रकार है। कौशिक नामक एक तपस्वी ब्राह्मण एक पेड़ के नीचे बैठकर वेदपाठ कर रहे थे। इतने में एक बगली ने पेड़ पर से उनके ऊपर चीट कर दी। कौशिक ने कुछ क्रुद्ध होकर उसकी ओर देखा और वह मरकर गिर पड़ी। इस पर कौशिक को बड़ा दुःख हुआ और वे भिक्षा माँगने के लिए एक परिचित गृहस्थ के घर पहुँचे। उसकी गृहिणी उन्हें बैठाकर भीतर अन्न आदि लाने गई, पर इसी बीच में उसका पति भूखा- प्यासा कहीं से आ गया और वह उसकी सेवा में लग गई। पीछे जब उसे द्वार पर बैठे हुए ब्राह्मण की सुध हुई तब वह भिक्षा लेकर तुरंत बाहर आई और विलंब का कारण बताकर क्षमा प्रार्थना करने लगी। कौशिक इसपर बहुत बिगड़े और ब्राह्मण के कोप का भयंकर फल बताकर उसे डराने लगे। इस पर उस स्त्री ने कहा— 'मैं बगलरी नहीं हूँ। आपके क्रोध से मेरा क्या हो सकता है ? मैं पति को अपना परम देवता समझती हूँ। उनकी सेवा से छुट्टी पाकर तब मैं मिक्षा लेकर आई हूँ। क्रोध बहुत बुरी वस्तु है। जो क्रोध के वश में नहीं होता देवता उसी को ब्राह्मण समझते हैं। यदि आपको धर्म का यथार्थ तत्व जानना हो तो मिथिला में धर्मव्याध के पास जाइए'। कौशिक अवाक् हो गए और अपने को धिक्कारते हुए मिथिला की ओर चल पड़े। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि धर्मव्याध नाना प्रकार के पशुओं का मांस रखकर बेच रहा है। धर्मव्याध ने ब्राह्मण देवता को देखते ही आदर से उठकर बैठाया और कहा—'आपको एक ब्राह्मणी ने मेरे पास भेजा है।' कौशिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने धर्मव्याध से कहा—'तुम इतने ज्ञानसंपन्न होकर ऐसा निकृष्ट कर्म क्यों करते हो'? धर्मव्याध ने कहा, 'महाराज ! यह पितृपरंपरा से चला आता हुआ मेरा कुलधर्म है; अतः मैं इसी में स्थित हूँ। मैं अपने, माता-पिता और अतिथियों की सेवा करता हूँ। देवपूजन और शक्ति के अनुसार दान करता हूँ, झूठ नहीं बोलता, बेईमानी नहीं करता। जो मांस बेचता हूँ वह दूसरों के मारे हुए पशुओं का होता है। मेरी वृत्ति भयंकर अवश्य है, पर क्या क्या जाय ? मेरे लिए वही निर्दिष्ट की गई है। वही मेरा कुलोचित कर्म है, उसका त्याग करना उचित नहीं। पर साथ ही सदाचार के आचरण में मुझे कोई बाधा नहीं। इसके उपरांत धर्मव्याध ने अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत इस प्रकार सुनाया— मैं पूर्वजन्म में वेदाध्यायी ब्राह्मण था। मैं एक दिन अपने मित्र एक राजा के साथ शिकार में गया और वहाँ जाकर मैंने एक मृगी के ऊपर तीर चलाया। पीछे जान पड़ा कि मृगी के रूप में एक ऋषि थे। ऋषि ने मुझे शाप दिया कि 'तूने मुझे बिना अपराध मारा इससे तू शूद्रयोनि में जाकर एक व्याध के घर उत्पन्न होगा।'

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